कबीरदास जी और काशी नरेश की कहानी Kashi Naresh or Kabir Das Ji ki Kahani
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जब कबीरदास जी की एक चमत्कारी संत के रूप में प्रतिष्ठा हो गयी तो उनके पास बहुत से लोग दूर-दूर से अपनी इच्छाओ की पूर्ति हेतु आने लगे, जिससे कबीरदास जी के भजन में व्यवधान पड़ने लगा। कबीरदास जी इन सब लोगों से पीछा छुड़ाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने एक उपाय सोचा, कबीरदास जी काशी नगरी में रहने वाली एक गणिका के पास गए। वह गणिका कबीरदास जी की प्रतिष्ठा से परिचित थी, इसलिए कबीरदास जी के जाते ही उस गणिका ने उनको प्रणाम किया और पूछा की मेरे लिए क्या आज्ञा है। कबीरदास जी बोले देवी मुझे तुम्हारी सहायता की आवश्यकता है। गणिका बोली मुझ जैसी पापिनी स्त्री आप जैसे संत की क्या सहायता कर सकती है। कबीर जी बोले जगत के लोग मेरे पास आकर मेरे भजन में व्यवधान डाल रहें है, मुझे उनसे छुटकारा चाहिए, इसलिए तुम्हारी मदद की आवश्यकता है। गणिका बोली यदि मैं प्राण देकर भी आपकी कोई मदद कर सकी तो मैं जरूर आपकी मदद करुँगी।
कबीरदास जी बोले मैं एक दिन के लिए तुम्हारे साथ घोडा गाड़ी में बैठकर पुरे बाजार में घूमूँगा, मैं साथ में एक बोतल भी रखूँगा जिसमें रंग मिला हुआ पानी होगा, जिसे पीते हुए मैं तुम्हारे साथ बाजार में घूमूँगा उसके बाद तुम घर चली जाना। गणिका बोली यदि आप इस प्रकार मेरे साथ बाजार में घूमेंगे तो आपकी बहुत बदनामी हो जाएगी। कबीरदास जी बोले मैं यही चाहता हूँ, जब मेरी बदनामी हो जाएगी तो फिर लोग मेरे पास आना बंद कर देंगे, जिससे मेरे भजन में कोई व्यवधान नहीं पड़ेगा। कबीरदास जी के कहने पर गणिका मान गयी। अगले दिन कबीरदास जी उस गणिका के साथ घोड़ागाड़ी में बैठकर बोतल हाथ में लिए एक शराबी की तरह बाजार में निकले। कबीरदास जी जैसे संत को इस प्रकार देखकर पूरे में काशी में हल्ला मच गया।
कबीरदास जी के इस रूप को देखकर संत जन डर गए और दुष्ट लोगों की प्रसन्नता का कोई ठिकाना ही नहीं रहा, वे लोग जो कबीरदास जी से जलते थे, उन्हें किसी भी प्रकार से निचा दिखाना चाहते थे, उन्हें एक मौका मिल गया, वे लोग कबीरदास जी की निंदा करने लगे। पूरे काशी में कबीरदास जी की निंदा होने लगी। अब कबीरदास जी के पास पहले की तरह लोग नहीं आते थे, कबीरदास जी सुख पूर्वक भजन करने लगे। एक दिन कबीरदास जी के पास कुछ संत आये और उनसे बोले, कबीर जी हम जानते है की आपने लोगों को अपने से दूर हटाने के लिए यह लीला की है, जिससे आपके भजन में व्यवधान न पड़े। परन्तु आपके इस कृत्य से लोगों की संत वेश पर अश्रद्धा होने लगी है, जो की अच्छी बात नहीं है, इसलिए अब आपको कुछ ऐसा करना होगा, जिससे लोगों की संतो के प्रति अश्रद्धा न हो। कबीरदास जी बोले ठीक है मैं कुछ करता है।
उस समय के काशी नरेश कबीरदास जी के शिष्य थे, वे कबीरदास जी का बहुत सम्मान करते थे, परन्तु जब से उन्होंने कबीरदास जी के इस प्रसंग के विषय सुना था, उनके मन विकार उत्पन्न हो गया था वे कबीरदास जी पर अश्रद्धा करने लगे थे। परन्तु वे अपने गुरूजी को कुछ कह नहीं सकते थे, इसलिए वे चुप थे। एक दिन कबीरदास जी गंगाजल से भरी हुई एक बोतल लेकर काशी नरेश के दरबार में पहुंच गए, काशी नरेश का दरबार भरा हुआ था। पहले जब भी कबीरदास जी दरबार में आते थे, तब काशी नरेश अपने सिंघासन से उठकर कबीरदास जी का स्वागत करने जाते थे, परन्तु इस बार काशी नरेश ने ना तो कबीरदास जी का स्वागत किया और ना ही उन्हें प्रणाम किया। कबीरदास जी ने सोचा, लगता है मैंने जो किया था उसकी खबर नरेश को भी ही गयी है, यह उपाय तो बड़ा अच्छा काम कर गया, हम तो काशी नरेश को अपना पक्का शिष्य समझते थे, परन्तु यह भी कच्चे ही निकले। यह सोचते हुए कबीरदास जी बिना कुछ कहे दरबार में जाकर बैठ गए।
दरबार की कार्यवाही चल रही थी, कबीरदास जी से किसी ने भी बात नहीं की, कबीरदास जी चुपचाप बैठे-बैठे ध्यान करने लगे। ध्यान में वह जगन्नाथपुरी पहुंच गए, और भगवान् जगन्नाथ के दर्शन करने लगे। उस समय जगन्नाथपुरी में कुछ मंदिर के पुजारी भगवान जगन्नाथ का भोग लेकर जा रहे थे। तभी रसोई से एक अंगारा उछल कर उनके रास्ते में आ गया। पुजारियों का ध्यान अंगारे पर नहीं था, यदि उनका पैर उस अंगारे पर लग जाता, भगवान जगन्नाथ के भोग का थाल गिर जाता। कबीरदास जी जो काशी नरेश के दरबार में ध्यान लगाए हुए बैठे थे, उन्होंने अपने हाथ में रखी उस बोतल का गंगाजल उस अंगारे पर उंडेल दिया और उसे बुझा दिया। दरबार में सबको लगा की कबीरदास जी ने बोतल का पानी दरबार में उंडेल दिया लेकिन कबीरदास जी ने तो जगन्नाथपुरी में उस अंगारे को बुझाया था।
काशी नरेश और और सभी दरबारी कबीरदास जी को यह सब करते देख रहे थे, नरेश ने कबीरदास जी से पूछा गुरूजी आप यह क्या कर रहे है, आपने यह कहाँ जल डाल दिया। यह सुनकर कबीरदास जी क ध्यान भंग हो गया और वे बोले राजन कुछ नहीं वो जगन्नाथजी का भोग जा रहा था रास्ते में एक अंगारा पड़ा था, यदि उस पर किसी का पैर पड़ जाता तो भगवान के भोग का थाल गिर जाता, इसलिए मैंने उसे जल डालकर बुझा दिया। काशी नरेश ने सोचा गुरूजी तो यहाँ बैठे है तो इन्हें जगन्नाथपुरी की खबर कैसे हो सकती है, लगता है यूँ ही बड़बड़ा रहें है, मदिरापान का असर हो गया है शायद। दूसरे ही पल काशी नरेश ने सोचा गुरूजी कभी झूठ तो बोलते नहीं, हो सकता है कोई बात रही हो। काशी नरेश का मन दुविधा में पड़ गया, वे सोचने लगे कबीरदास जी बाजार में गणिका के साथ घूम रहे थे वह बात सत्य है या फिर दरबार में जो उन्होंने कहा वह बात सत्य है। राजा ने निश्चय किया की दूतों को जगन्नाथपुरी भेजकर इस बात की सत्यता की जाँच की जानी चाहिए।
दरबार से कबीरदास जी के जाने के बाद काशी नरेश ने कुछ दूतों को जगन्नाथपूरी रवाना किया। दूतों को जगन्नाथपुरी पहुंचने में कुछ दिनों का समय लगा। वहाँ पहुँचकर दूतों ने जगन्नाथ मंदिर के पुजारियों से पूछताछ की। पुजारियों ने इस घटना को प्रमाणित करते हुए बताया की कुछ दिन पहले भगवान जगन्नाथ की सेवा में भोग का थाल जा रहा था, वहाँ रस्ते में एक अंगारा पड़ा था, यदि उस अंगारे पर किसी का पैर पड़ जाता तो भगवान के भोग का थाल गिर जाता, परन्तु ना जाने कहाँ से उस समय कबीरदासजी वहाँ आ गए और उन्होंने पानी डालकर उस अंगारे को बुझा दिया। दूतों ने काशी लौटकर यह समाचार काशी नरेश को सुनाया। सुनते ही काशी नरेश की आँखों में आंसू आ गए, उन्हें अपने किये पर पश्चाताप होने लगा, वे सोचने लगे की उन्होंने गुरूजी पर अश्रद्धा करके और उनका सम्मान ना करके बहुत बड़ा पाप किया है।
काशी नरेश ने रानी को भी यह बात बताई, वे बोले गुरूजी की कही बात सही साबित हुई, उन्होंने सच में जगन्नाथपुरी में उस अंगारे को यहाँ दरबार में बैठे-बैठे ही बुझा दिया था। मुझसे बहुत बड़ा पाप हो गया है, अरे जिन संत की कृपा मुझ पर और मेरी नगरी पर हमेशा बनी रही, मैंने लोगों की बातों में आकर उन्हें उठकर प्रणाम तक नहीं किया। जिनकी मैं हमेशा दरबार में अगवानी करता था, उन्हें मैं संदेह की दृस्टि से देखता रहा, धिक्कार है मुझ पर। रानी ने कहा हमें कबीरदास जी से क्षमा मांगनी चाहिए, वे एक महान संत हैं और संत तो बड़े ही दयालु होते है, वे हमें अवश्य ही क्षमा कर देंगे, हमें तुरंत रथ बुलाकर उनके पास पहुंचना चाहिए और उनसे क्षमा मांगनी चाहिए।
राजा ने कहा नहीं हम रथ पर सवार होकर उनके पास नहीं जायेंगे, हम एक अपराधी की भाँति उनसे क्षमा मांगने जायेगें। उस समय काशी नरेश और उनकी रानी ने कबीरदास जी से क्षमा मांगने के लिए साधारण वस्त्र धारण किये, मुँह में तिनका दबाया, सिर पर तिनकों का बोझा उठाया, गले में कुल्हाड़ी लटकायी और नंगे पैर पैदल ही अपने राजमहल से कबीरदास जी के घर की तरफ चल पड़े। पूरी काशी नगरी अपने राजा-रानी को इस अवस्था में देखकर आश्चर्य कर रही थी, दोनों राजा और रानी कबीरदास जी से क्षमा माँगने के लिए सिर पर बोझा उठाये और मुँह में तिनका दबाये नंगे पाँव काशी के बाजार से होकर गुजर रहे थे।
किसी ने कबीरदास जी को खबर दे दी की काशी नरेश और उनकी रानी इस प्रकार आपसे क्षमा माँगने आ रहे है, कबीरदास जी उसी समय उठकर भागे और उन्हें मार्ग में ही रोक लिया। कबीरदास जी को देखकर दोनों राजा-रानी उनके चरणों में गिर गए और उनसे अपने किये के लिए क्षमा मांगी, कबीरदासजी बोले राजा तो भगवान का अंश होता है, इसलिए राजा की ऐसी दीनता ठीक नहीं होती, क्या हुआ यदि आपने हमें प्रणाम नहीं किया तो हम आपसे बिलकुल भी नाराज नहीं है। यह कहकर कबीरदास जी ने स्वयं उनके सिर से बोझा उतारा और गले से कुल्हाड़ी निकाली। दोनों राजा-रानी फुट-फुट कर रोने लगे और कबीरदास जी से क्षमा याचना करने लगे। कबीरदास जी ने राजा को अपने हृदय से लगाया और बोले राजन मैं आपसे बिलकुल भी नाराज नहीं हूँ, तो क्षमा करने का प्रश्न ही नहीं उठता, और यदि फिर भी आप मुझसे क्षमा चाहते है, तो हे राजन मैंने आपको क्षमा किया। यह द्रश्य देखकर पूरी काशी नगरी गदगद हो गयी। अब पूरी काशी नगरी में कबीरदास जी की जय-जयकार हो गयी सभी को मालूम हो गया था की कबीरदास जी ने उस समय लोगों को अपने से दूर करने के लिए उस गणिका के साथ लीला की थी। अब कबीरदास जी की एक संत के रूप में प्रतिष्ठा पहले से भी कई गुणा अधिक बढ़ गयी थी।
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