भगवान श्री राम और कबीरदास जी की कहानी Kabirdas ji ki kahani Part 2
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श्री रामानंदाचार्य जी से दीक्षा लेने के बाद कबीरदास जी मन लगाकर राम नाम का जाप करने लगें। वे सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते, कपडा बुनते हर समय राम नाम का जप करते रहते थे। अब तो कबीरदास जी श्री रामानंदाचार्य जी से अक्सर मिलने जाया करते थे, और अपनी किसी जिज्ञासा का समाधान भी उन्ही से प्राप्त किया करते थे। कबीरदास जी को लगन से भजन करता देख कुछ भगवान से विमुख लोग उनके पास आते है, और उनमें से एक व्यक्ति कबीरदास जी से पूछता है, कबीरदास तुम क्या कर रहे हो, कबीरदास जी कहते है मैं गुरूजी की आज्ञा से राम-नाम का जाप कर रहा हूँ। वह व्यक्ति बोला कौनसे राम का नाम जपते हो। कबीरदास जी बोले 'कौनसे राम का' राम जी भी क्या बहुत सारे है। वह व्यक्ति बोला जब तुम्हें यही नहीं मालूम की तुम कौनसे राम का नाम जप रहे हो तो तुम्हे जप का फल कैसे मिलेगा। कबीरदास जी बोले भाई मैं तो एक ही राम को जनता हूँ अब आप ही बताइये की राम कौन-कौन से हैं।
अब उस व्यक्ति ने कबीरदास जी को एक दोहा सुनाया "एक राम दशरथ का बेटा, एक राम घट-घट में लेटा, एक राम का सकल पसारा, और एक राम सब ही से न्यारा" इनमें से कौनसा राम है तुम्हारा। यह सुनकर कबीरदास जी के मन में संशय उत्पन्न हो गया की अब तक तो हम एक ही राम को जानते है, परन्तु राम तो बहुत सारे है। कबीरदास जी अपने मन का संशय दूर करने के लिए अपने गुरु श्री रामानंदाचार्य जी के पास जाते है और उन्हें सारी बात कह सुनाते हैं। कबीरदास जी की बात सुनकर श्री रामानंदाचार्य जी हँस पड़े और बोले बेटा ऐसे भ्रमित करने वाले लोग तुम्हें जीवनभर मिलेंगे इसलिए तुम्हें उनसे सजग रहना होगा। भगवान के नाम अलग-अलग होने से भगवान स्वयं अलग-अलग नहीं हो जाते, भगवान तो एक ही हैं। जो राम दशरथ जी का बेटा है वही राम घट-घट में भी लेटा है, जिस राम सकल पसारा है वह राम सबसे न्यारा भी है। इसलिए इस दोहे का उत्तर यह है "वही राम दशरथ का बेटा, वही राम घट-घट में लेटा, उसी राम का सकल पसारा, वही राम सब ही से न्यारा" वह राम सब जीवों के हृदय में निवास करता है इसलिए वह सभी के घट में लेटा है, वही राम जब इस सृस्टि को रचते है, तो यह सब उन्हीं का पसारा है। वह राम इस सृस्टि को रचने के बाद भी इस सृस्टि मन फंसते नहीं है, इसलिए वे सबसे न्यारे भी हैं। इसलिए इन सब में कोई भेद नहीं है, ये चारों एक ही है।
गुरूजी के यह वचन सुनकर कबीरदास जी का सारा संशय दूर हो गया और वे पहले की ही भांति मन लगाकर राम नाम का जाप करने लगे। धीरे-धीरे समय बीतने लगा और कुछ समय बाद कबीरदास जी के पिताजी नूरअली का देहांत हो गया। पिता के देहांत के बाद कबीरदास जी की माँ को डर लगा रहता था, की कहीं कबीर साधु न बन जाये, इसलिए इनकी माँ ने सोचा की कबीर का विवाह कर देना चाहिए विवाह के बाद यह घर गृहस्ती में पड़ जायेगा तो साधु नहीं बनेगा, इसलिए उनकी माँ ने कबीरदास जी का विवाह कर दिया। कबीरदास पत्नी का नाम लोई था वह भी कबीरदास जी की ही भांति एक भक्तमति स्री थी। पिता के देहांत के बाद घर चलाने की पूरी जिम्मेदारी कबीरदास जी के ऊपर आ गयी। अब कबीरदास जी भी अपने पिता की भांति कपडा बुनकर जीवन निर्वाह करने लगे।
कबीरदास जी प्रतिदिन केवल उतना ही कपडा बुनते थे, जितने से उस दिन का निर्वाह हो जाये। जब वे कपडा बुनकर उसे बाजार में बेचने जाते थे तो भगवान से केवल यही प्रार्थना करते थे "सांई इतना दीजिये जा में कुटुंब समाय, मैं भी भूखा न रहूँ साधू ना भूखा जाये" अर्ताथ हे भगवान मुझे इतना दीजिये जिसमे मेरे परिवार का जीवन निर्वाह हो जाये और यदि कोई साधु मेरे घर भोजन की आस से आये तो वह भी भूखा न जाये।
एक दिन कबीरदास जी कपडे का एक थान बाजार में बेचने गए सुबह से शाम हो गयी परन्तु वह कपडा नहीं बिका। शाम को उनके पास एक साधु आये, उनकी धोती फटी हुई थी उसके पास ओढ़ने बिछाने को भी कुछ नहीं था। वे आकर कबीरदास जी से बोले कबीर जी मुझे थोड़ा कपडा चाहिए, कबीरदास जी बोले आपको कपडा चाहिए अच्छा ले लीजिये। कबीरदास जी उन्हें उस थान में से आधा कपडा काटकर देने लगे। कबीरदास जी ने सोचा आधा कपडा इन्हें दान कर देते है, आधे कपडे को बेचकर घर के लिए राशन ले लेंगें। जैसे ही कबीरदास जी उस थान में से आधा कपडा काटने लगे साधु बोले आधा कपडा क्यों काट रहें है पूरा कपडा ही दे दीजिये इससे मेरी लंगोटी, धोती, अचला, बिछौना और ओढ़ना सब बन जायेगा इसलिए पूरा थान ही दे दो।
कबीरदासजी ने सोचा यदि मैं इन्हे कपडे का पूरा थान ही दे दूंगा, तो फिर मैं घर पर राशन लेकर कैसे जाऊंगा। मेरी तो सारी पूंजी ही यह कपडा है, यह कपडा बिकेगा तो उसके मुनाफे से ही मैं घर पर राशन लेकर जाऊंगा और धागा खरीदकर दूसरा कपडा बना पाउँगा। यदि यह कपडा मैंने इन साधु को दे दिया मेरा कपडा बुनने का काम ही रुक जायेगा। दूसरे ही पल कबीरदास जी को गुरूजी की कही बात याद आ गयी की सभी जीवों के भीतर भगवान का निवास हैं, जाने किस रूप में नारायण आ जाएं। कबीरदास जी ने सोचा दो चार दिन गंगाजी का जल पीकर रह लेंगे, परन्तु इस साधु को निराश नहीं करना चाहिए। राम जी सबका ध्यान रखते है, हमारा भी ध्यान रखेंगें। यह सोचकर कबीरदास जी ने उस साधु को कपडे का पूरा थान दे दिया। कपडा लेकर वे साधु चले गए। अब कबीरदासजी ने सोचा यदि अब मैं घर जाऊंगा तो माँ और पत्नी जब राशन के बारे में पूछेंगी तो मैं क्या जवाब दूंगा। माँ को जब पता चलेगा की मैंने सारा कपडा साधु को दान कर दिया है, तो माँ बहुत नाराज होगी, बहुत झगड़ा और कीच-कीच होगी। तब कबीरदास जी ने सोचा अब मेरे पास न तो राशन के लिए पैसे है, और न करने को कुछ काम, इसलिए घर जाने से अच्छा है कहीं एकांत में बैठकर राम नाम का जाप करें। यह सोचकर कबीरदास जी गंगा के किनारे किसी एकांत स्थान पर बैठकर राम नाम जपने लगे।
तीन दिन हो गए कबीरदास जी घर नहीं लौटे वे वही गंगा किनारे गंगाजी का जल पी लेते और राम नाम जपते रहते। घर पर उनकी माँ और पत्नी का भी बुरा हाल था वे दोनों कबीरदास जी को लेकर चिंतित थी, और उनके पास न तो पैसे थे और न ही राशन था, वे दोनों भूखी-प्यासी कबीरदास जी की बाट जोह रही थी। कबीरदास जी और उनके परिवार को ऐसी स्थिति में देखकर साकेत धाम में भगवान श्री राम चिंतित हो गए। उन्होंने एक बंजारे का भेष बनाया और अपने साथ 500 बैलगाड़ियों में खाने पिने का सामान, आनाज, मेवे, घी-तेल, कपडे, धन, स्वर्ण मुद्राएँ, जेवरात आदि सामान लेकर कबीरदास जी के घर की तरफ चल पड़े। मार्ग में बंजारे के भेष में भगवान श्री राम लोगों से पूछते जा रहे थे की कबीरदास जी का घर किधर है, जब लोग उनसे पूछते की आप कौन है और ये सब सामान किसका है, तब रामजी बताते मेरा नाम केशव बंजारा है और यह सारा सामान कबीर साहब का है, उन्ही के घर मुझे यह सारा सामान पहुंचना है। लोगों ने कहा कबीर साहब नाम का तो यहाँ कोई नहीं रहता यहाँ तो कबीर जुलाहा रहता है। रामजी बोले हाँ वे ही कबीर साहब हैं जो जुलाहा है, उन्ही के घर मुझे यह सारा सामान पहुँचाना है। यह सुन कर ग्राम के सभी लोग आश्चर्य करने लगे की कबीर जुलाहा कब से इतना धनवान हो गया।
अब केशव बंजारे के रूप में रामजी रास्ते में पूछते-पूछते सारा सामान लेकर कबीरदास जी के घर पहुंचे, कबीरदास जी की माँ नीमा जान घर के बाहर ही बैठी कबीरदास जी का इंतजार कर रही थी। रामजी ने पूछा कबीर साहब का घर यही है, नीमा जान बोली हाँ जी यही है कबीर का घर, लेकिन कबीर अभी घर पर नहीं है, वो तीन दिन से घर नहीं लौटा, वो बाजार में कपडा बेचने गया था, आज तीन दिन हो गए पर वो अभी तक घर नहीं लौटा। रामजी बोले मेरा नाम केशव बंजारा है, मुझे कबीर साहब ने ही भेजा है। नीमा जान बोली आपको कबीर ने भेजा है तो कबीर स्वयं कहाँ है। रामजी बोले कबीर धागा खरीदने गए हुए हैं, आज कल में लौट आयेंगें। बाजार में उनका कपडा बहुत अच्छे दाम में बिका था, उन पैसों से कबीरदास जी ने सामान खरीदकर घर पर रखवाने के लिए भेजा है। नीमा जान इतनी सारी बैलगाड़ियों पर लदे सामान को देखकर बोली महाराज आपसे कोई गलती हो गयी है, यह मेरे बेटे का सामान नहीं हो सकता, वो तो थोड़ा सा कपडा बुनकर ले गया था, उस कपडे की कीमत में इतना सारा सामान नहीं आ सकता।
रामजी बोले नहीं यह सारा सामान कबीरदास जी का ही है, उन्होंने हमें ही कपडा बेचकर यह सारा सामान ख़रीदा है, हम तो बस इस सामान को आपके घर छोड़ने आएं है, आप घर में जगह बता दो हम यह सामान रख देंगें। नीमा जान ने बहुत समझाया परन्तु केशव बंजारा नहीं माना और उसने सारा सामान कबीरदास जी के घर के आंगन में रखवा दिया और चला गया। इतना सारा सामान देखकर नीमा जान आश्चर्यचकित रह गयी, उसके घर के आंगन में और घर के भीतर पैर रखने तक की जगह नहीं बची थी, हर तरफ कीमती कपडे, गहने, जेवरात, खाने पिने का सामान बोरियों में भर-भर के रखा हुआ था। कबीरदास जी के घर के आसपास रहने वाले लोग जो उनके तीन दिनों से भूखे परिवार को भोजन तक नहीं पूछ रहे थे, वे लोग नीमाजान की उस सामान को रखवाने में मदद करने लगे। कबीरदास जी के घर में बैठने तक की जगह नहीं बची थी, इसलिए नीमाजान ने उस धन से उसी दिन अपने पड़ौस का बड़ा घर खरीद लिया और सारा सामान उसमे रखवा दिया। अब तो कबीरदास जी का परिवार आनंद से रहने लगा। परन्तु चार-पांच दिन और बीत गए लेकिन कबीरदास जी अभी तक घर नहीं पहुंचे थे।
कबीरदास जी की माँ ने अपने मोहल्ले के कुछ लोगों को पांच-पांच स्वर्ण मुद्राएँ दी और उन्हें कबीरदास जी की खोज में भेजा। उन लोगों ने सारी काशी छान मारी, अंत में कबीरदास जी गंगा के किनारे झाड़ियों में उन्हें मिल गए। कबीरदास जी वहां बैठे-बैठे राम-राम जप रहे थे। उन लोगों ने कबीरदास जी से कहा कबीरदास जी आप यहाँ बैठे है, वहाँ आपके घर अन्न धन के भंडार भर गए है, आपकी माँ से इतनी संपत्ति संभाली नहीं जा रही, घर में सब रो-रोकर बैचेन हो रहें है। आप जल्दी से अपने घर चलिए। कबीरदास जी बोले कौनसी संपत्ति और कौन दे गया इतना सब। लोगो ने कहा वो केशव बंजारा जिसे आपने कपडा बेचा था, वो आपके घर पर अतुल संपत्ति छोड़ कर गया है। अब आपको कपडा बुनने की भी जरुरत नहीं पड़ेगी, इसलिए अब आप घर चलिये। कबीरदास जी ने मन में सोचा मैंने तो किसी को कपडा नहीं बेचा, कहीं मेरे प्रभु श्री राम ने कोई लीला तो नहीं कर दी। यह सोच कर वे उन लोगो के साथ अपने घर की ओर चल पड़े। घर आकर उन्होंने देखा की उनका पूरा घर अन्न-धन से भरा हुआ है।
कबीरदास जी ने अपनी माँ से पूछा माँ यह सब संपत्ति कौन दे गया। माँ ने बताया बेटा ये सब वो सेठजी दे गए है, जिनको तूने कपडा बेचा था, वो अपना नाम केशव बंजारा बता रहे थे। कबीरदास जी बोले माँ मैंने किसी सेठजी को कपडा नहीं बेचा, मैने तो वो कपडे का थान एक साधु को दान कर दिया था, और मैं तो तुम्हारे डर से गंगा किनारे की झाड़ियों में छिपा हुआ था। माँ मैं सच कह रहा हूँ मैंने किसी को कपडा नहीं बेचा। माँ बोली मैं भी सच कहती हूँ बेटा एक बहुत बड़े सेठ आये थे, और वे ही ये सब सामान देकर गए है, कहते थे कबीर ने मुझे ही कपडा बेचा था। अब कबीरदास जी को विश्वास हो गया की भगवान श्री राम ही उसके यहाँ यह सब संपत्ति छोड़ गए हैं। कबीरदास जी बोले माँ मैं समझ गया हूँ यह संपत्ति मेरे प्रभु श्री राम छोड़ गए है, उस साधु के वेश में वही आये थे, वे ही मुझसे कपडे का थान ले गए थे। मैं ही अपने प्रभु को पहचान नहीं पाया। मैं लोगो को कहता फिरता था "कबीरा या संसार में सब से मिलिये धाय, न जाने किस भेष में नारायण मिल जाये" लेकिन जब मेरे सामने नारायण आये तो मैं स्वयं ही उन्हें पहचान नहीं पाया। यह सब संपत्ति हमारी नहीं है माँ, यह सब भगवान की दी हुई संपत्ति है।
उसी दिन कबीरदास जी ने काशी के सभी दरिद्रों और गरीब लोगों को बुला लिया और दोनों हाथों से उन्हें वह संपत्ति लुटाने लगे। उनकी माँ उन्हें बार-बार रोकती थी परन्तु कबीरदास जी नहीं माने वे भर-भर के लोगो को संपत्ति दान करने लगे। माँ बोली बेटा ऐसे ही सब कुछ लुटा देगा तो हमें फिर से रोटी के लाले पड़ जायेगें। कबीरदास जी बोले नहीं माँ ऐसा नहीं होगा, मैंने तो केवल कुछ गज का कपडा एक साधु को दान किया था, इतने से ही मेरे प्रभु इतने प्रसन्न हो गए की वे स्वयं चलकर हमारे घर आये तो सोचो अगर हम उनका दिया हुआ इतना सब कुछ दान कर देंगे तो मेरे प्रभु कितने प्रसन्न होंगें। यह कहकर कबीरदास जी ने वह सब कुछ गरीबों को दान कर दिया। कबीरदास जी की माँ उनको मना करती रह गयी परन्तु कबीरदास जी नहीं माने और उन्होंने सारी संपत्ति के साथ अपना वो सामान और औजार भी गरीबों को दान कर दिए जिनसे वे कपडा बुनते थे। उसी समय कबीरदास जी ने एक पद गया "तन गुदड़ी मन धागा मोहे हरि रंग लागा, ऐसी प्रीत लगी भगतन संग ज्यों सोने में सुहागा, ताना बुनना तजा कबीरा, राम नाम लिख लिया शरीरा" इसके बाद कबीरदास जी ने कपडा बुनना छोड़ दिया और हर समय राम नाम जपने लगे और भगवान के पदों की रचना करने लगे।
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